Thursday 13 September 2012

अमर बलिदानी "जतिन दा" का अनंतकाल तक ऋणी रहेगा देश

ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लगातार 63 दिनों तक अनशन के बाद जेल में तेरह सितंबर 1929 को महान क्रांतिकारी यतीन्द्र नाथ दास (उनके क्रन्तिकारी साथी उन्हें स्नेह से "जतिन दा " ही कहते थे) के शहीद होने से देश का वातावरण एक साथ आंसुओं और विद्रोह की चिंगारियों से भर उठा था। कहा जाता है कि उनके अंतिम संस्कार में लगभग दस लाख लोग शामिल हुए थे और उनकी चिता की राख से "तिलक" करने की होड़ के कारण जहां उनकी चिता जलाई गयी थी वह स्थान एक गड्ढे में परिवर्तित हो गया था.
उनकी शहादत क्रांति की एक मशाल बनकर उठी जिसने सारे देश में बगावत की रोशनी फैला दी। क्या कोई जानता है कि, अमर बलिदानी "जतिन दा" के परिजन आज कहाँ और किस हाल में हैं.?
ये सवाल उन ठगों-बहुरूपियों के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ की तरह है जो अपने बाप दादों द्वारा काटी गयी कुछ महीनों-सालों तक "A" श्रेणी जेल की सज़ा की कीमत पिछले 65 सालों से इस देश का हुक्मरान बनकर वसूल रहे हैं.
अंग्रेजी हुकूमत से अपनी बात मनवाने के लिए 13 जुलाई 1929 को भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त तथा उनके साथियों ने भख हड़ताल कर दी थी.। इस अवसर पर यतीन्द्र नाथ दास ने कहा था कि ”हड़ताल का ऐलान करके हम लोग एक लम्बे संघर्ष में उतर रहे है, जो एक मायने में कठिन है। अनशन पर तिल-तिल कर इंच-इंच मौत की ओर सरकने की अपेक्षा पुलिस की गोली का शिकार होकर या फांसी पर झूलकर मर जाना आसान है पर एक बार अनशन के मैदान में उतर कर पीछे हटना क्रातिकारियों की प्रतिष्ठा को नीचे गिराना है।” यतीन्द्र ने यह भी कहा था कि ”जहां तक उनका सवाल है एक बार अनशन आरम्भ होने पर वह उस समय तक पीछे नहीं हटेंगे जब तक सरकार क्रातिकारियों की मागें स्वीकार नहीं कर लेती। अनशन के दौरान बीमार पड़ने पर भी कोई भी मुंह से किसी प्रकार की दवाइयां आदि नहीं लेगा और कोई भी क्रातिंकारी शरीर में शक्ति रहते बलपूर्वक दूध पिलाने के अधिकारियों के प्रयासों का विरोध करता रहेगा।” उन दिनों अनशन तोड़ने के लिए जेल अधिकारी अच्छा सुगन्धित खाना बनवा कर रखते थे। लेकिन अन्य अनशनकारी जहां भोजन को बाहर फेंक दिया करते थे, वहीं यतीन्द्र नाथ में इतना आत्म संयम था कि वह भोजन को छूते तक नहीं थे न बाहर फेंकते थे, और न खाते थे। उनकी कोठरी से जेलकर्मी रोज पूरा भोजन वापस ले जाते थे। अनशन तुड़वाने के लिए 26 जुलाई 1929 को अन्य साथियों से फुर्सत पाने के बाद जवानों ने यतीन्द्र को पूरी तरह काबू कर लिया और उनकी नाक में नली डाली। यतीन्द्र ने उसे मुंह से निकाल कर दांतों से दबा लिया। डॉक्टर ने दूसरी नली उसकी दूसरे नथुने में डालनी आरम्भ की। यतीन्द्र का दम घुटने लगा, फिर भी मुंह खोले बगैर वह दूसरी नली को भी पेट में जाने से रोकने का प्रयास करते रहे। दूसरी नली पेट में न जाकर उनके फेफड़ों में चली गई। डॉक्टर जल्दी में था वह अपनी विजय को हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। दम घुटने से यतीन्द्र की आंख उलट चुकी थी। लेकिन चेहरे को देखे बिना डॉक्टर ने लगभग एक सेर दूध उनके फेफड़ों में भर दिया और विजयोल्लास में उन्हें छटपटाता छोड़कर चला गया। अनशन के 63वें दिन उनकी हालत खराब देखकर डॉक्टरों ने उन्हें इजेंक्शन लगाना चाहा। उनका अनुमान था कि अचेतन अवस्था में यतीन्द्र को शायद पता न चल पाएगा कि उन्हें इंजेक्शन लगाया जा रहा है। लेकिन यतीन्द्र ने उन्हें मना कर दिया और कुछ देर बाद उन्होंने सदा-सदा के लिए आखें बन्द कर ली। दोस्तों की संगति में और राष्ट्रीय तराने की धुन के बीच यतीन्द्र ने दम तोड़ दिया। ।
माँ भारती के इस अजर-अमर विलक्षण बलिदानी सपूत को कोटि-कोटि प्रणाम...!!! विनम्र श्रद्धांजलि...

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