Thursday 19 April 2012

स्व. दुष्यंत जी को याद करते हुए......


सत्ता के पागल हाथी पर सवार  चंद सिरफिरे सियासी शैतानों ने 
आम आदमी की आवाज़ उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को
अपने अहंकार के अंकुश से संचालित करने का जो षड्यंत्र रचा
उसे आंशिक सफलता ही प्राप्त हो सकी. "जय" अंततः "जन" की ही हुई. फेसबुक के मंच को
अपने चाटुकारों की चौपाल बनाने का दिवास्वप्न देखने वाले
चुनिन्दा सियासी दैत्यों की इस शर्मनाक असफलता पर
आप सभी राष्ट्रप्रेमी मित्रों को कोटि-कोटि बधाई.
पिछले दिनों जिस प्रकार से फेसबुक को अपने हंटर से हांकने का दुष्प्रयास किया गया वह भयावह भविष्य का भावी संकेत है. 

अतः हम सभी को पूर्व की अपेक्षा अधिक सजग सतर्क रहना होगा.
28 फरवरी को ब्लॉक किया गया मेरा अकाउंट आज से एक्टिव हुआ है. अतः ठीक 50 दिन पश्चात् जनकवि स्व. दुष्यंत को याद करते हुए उन की दो कविताओं के साथ आप सभी साथियों के मध्य पुनः उपस्थित हो रहा हूँ.
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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
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अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार

आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं
रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार

रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले—बहार

मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके—जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार

हालते—इन्सान पर बरहम न हों अहले—वतन
वो कहीं से ज़िन्दगी भी माँग लायेंगे उधार

रौनक़े-जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं
मैं जहन्नुम में बहुत ख़ुश था मेरे परवरदिगार

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार

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